'पूर्व प्रधानमंत्री अजातशत्रु भारत रत्न पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी को शत शत नमन'

'नवनीत' के दिसंबर, 1963 के अंक में 'राजनीति की रपटीली राह में' शीर्षक से। प्रकाशित अपनी रचना में अपने मन के अंतर्द्वंद्व कि वे इस प्रकार प्रकट करते हैं।

" मेरी सबसे बड़ी भूल है राजनीति में आना। इच्छा थी कि कुछ पठन-पाठन करूंगा। अध्ययन और अध्यवसाय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य को कुछ दे जाऊंगा, किंतु राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो दूर रहा, गांठ की पूंजी भी गँवा बैठा। मन की शांति मर गई, संतोष समाप्त हो गया। एक विचित्र सा खोखलापन मन में भर गया। ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे हैं। क्षणिक स्थाई बनता जा रहा है जड़ता को स्थायित्व मान कर चलने की प्रवृत्ति पनप रही है।

  आज की राजनीति विवेक नहीं वाक्चातुर्य चाहती है। संयम नहीं, असहिष्णुता को प्रोत्साहन देती है। श्रेय नहीं, प्रेम के पीछे पागल है। मतभेद का समादर करना तो दूर, उसे सहन करने की प्रवृत्ति भी विलुप्त होती जा रही है। आदर्शवाद का स्थान अवसरवाद ले रहा है। बाएं और दाएं का भी मतभेद व्यक्तिगत ज्यादा है और विचारगत कम। सब अपनी-अपनी गोटी लाल करने में लगे हैं। उत्तराधिकार की शतरंज पर मोहरे बिठाने की चिंता में लीन है।
 
   सत्ता का संघर्ष प्रतिपक्षियों से ही नहीं, स्वयं अपने दल वालों से हो रहा है। पद और प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए जोड़तोड़, सांठगांठ और ठकुरसुहाती आवश्यक है। निर्भिकता और स्पष्टवादिता खतरे से खाली नहीं है। आत्मा को कुचल कर ही आगे बढ़ा जा सकता है।
 
   इसमें संदेह नहीं कि जिस राजनीतिक दल से मैं संबद्ध हूं, वह अभी तक अनेक बुराइयों से अछूता है, किंतु उसमें भी ऐसे व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है, जो हल्की आलोचना में रस लेते हैं और प्रतिपक्षी की प्रमाणिकता पर खुले रुप से संदेह प्रकट करना अपना अधिकार मानते हैं।
 
   इतना सब होते हुए भी राजनीति छूटती नहीं। एक चस्का सा लग गया है। प्रतिदिन प्रातः समाचार पत्रों में अपना नाम पढ़कर जो नशा चढ़ता है, वह उतरने का नाम नहीं लेता। संभवतः इसीलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक ने स्वयंसेवकों को वृत्तपत्र में नाम छुपाने और स्वागत सत्कार में फंसने के विरुद्ध चेतावनी दी थी, किंतु राजनीति प्रधान युग में जब संस्कृति और समाज का विकास भी शासन की कृपा-कोर पर निर्भर हो गया है, आत्म विज्ञापन से कैसे बचा जा सकता है? स्पष्ट है सांप-छछूंदर जैसी गति हो गई है... ना निगलते बनता है और ना उगलते।"


नवनीत' के दिसंबर, 1963 के अंक में 'राजनीति की रपटीली राह में' शीर्षक से।

【 पूर्व प्रधानमंत्री अजातशत्रु भारत रत्न पंडित अटल बिहारी बाजपेई जी】

प्रस्तुति- गौरव दूबे

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