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ठन गई! मौत से ठन गई!

अटल बिहारी वाजपेयी ठन गई! मौत से ठन गई! जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई। मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं। मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आज़मा। मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर। बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए। आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है। पार पाने का क़ायम मगर हौसला, देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई। मौत से ठन गई।
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'पूर्व प्रधानमंत्री अजातशत्रु भारत रत्न पंडित अटल बिहारी वाजपेयी जी को शत शत नमन' 'नवनीत' के दिसंबर, 1963 के अंक में 'राजनीति की रपटीली राह में' शीर्षक से। प्रकाशित अपनी रचना में अपने मन के अंतर्द्वंद्व कि वे इस प्रकार प्रकट करते हैं। " मेरी सबसे बड़ी भूल है राजनीति में आना। इच्छा थी कि कुछ पठन-पाठन करूंगा। अध्ययन और अध्यवसाय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य को कुछ दे जाऊंगा, किंतु राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो दूर रहा, गांठ की पूंजी भी गँवा बैठा। मन की शांति मर गई, संतोष समाप्त हो गया। एक विचित्र सा खोखलापन मन में भर गया। ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे हैं। क्षणिक स्थाई बनता जा रहा है जड़ता को स्थायित्व मान कर चलने की प्रवृत्ति पनप रही है।   आज की राजनीति विवेक नहीं वाक्चातुर्य चाहती है। संयम नहीं, असहिष्णुता को प्रोत्साहन देती है। श्रेय नहीं, प्रेम के पीछे पागल है। मतभेद का समादर करना तो दूर, उसे सहन करने की प्रवृत्ति भी विलुप्त होती जा रही है। आदर्शवाद का स्थान अवसरवाद ले रहा है। बाएं और