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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना- तुम्हारे साथ रहकर

तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि दिशाएँ पास आ गयी हैं, हर रास्ता छोटा हो गया है, दुनिया सिमटकर एक आँगन-सी बन गयी है जो खचाखच भरा है, कहीं भी एकान्त नहीं न बाहर, न भीतर। हर चीज़ का आकार घट गया है, पेड़ इतने छोटे हो गये हैं कि मैं उनके शीश पर हाथ रख आशीष दे सकता हूँ, आकाश छाती से टकराता है, मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ। तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे महसूस हुआ है कि हर बात का एक मतलब होता है, यहाँ तक की घास के हिलने का भी, हवा का खिड़की से आने का, और धूप का दीवार पर चढ़कर चले जाने का। तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे लगा है कि हम असमर्थताओं से नहीं सम्भावनाओं से घिरे हैं, हर दिवार में द्वार बन सकता है और हर द्वार से पूरा का पूरा पहाड़ गुज़र सकता है। शक्ति अगर सीमित है तो हर चीज़ अशक्त भी है, भुजाएँ अगर छोटी हैं, तो सागर भी सिमटा हुआ है, सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है, जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है वह नियति की नहीं मेरी है। ~ तुम्हारे साथ रहकर / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना गौरव दूबे 'भूदेव' www.gauravdubeybhud

पाश

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अवतार सिंह ‘पाश’ की दो कविताएँ अपनी असुरक्षा से यदि देश की सुरक्षा यही होती है कि बिना ज़मीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाये आँख की पुतली में ‘हाँ’ के सिवाय कोई भी शब्द अश्लील हो और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़ जिसमें उमस नहीं होती आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है और आसमान की विशालता को अर्थ देता है हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा हम तो देश को समझे थे क़ुर्बानी-सी वफ़ा लेकिन ’गर देश आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है ’गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है तो हमें उससे ख़तरा है ’गर देश का अमन ऐसा होता है कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह टूटता रहे अस्तित्व हमारा और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे कीमतों की बेशर्म हँसी कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो तो हमें अमन से ख़तरा है ’गर देश की सुरक्षा ऐसी होती है कि हर हड़ताल को कुचलकर अमन को रंग चढ़ेगा कि वीरता