दुष्यंत कुमार की 10 बेहतरीन कविताएं और गज़ल
#1: कुंठा – दुष्यंत कुमार मेरी कुंठा रेशम के कीड़ों-सी ताने-बाने बुनती, तड़प तड़पकर बाहर आने को सिर धुनती, स्वर से शब्दों से भावों से औ’ वीणा से कहती-सुनती, गर्भवती है मेरी कुंठा –- कुँवारी कुंती! बाहर आने दूँ तो लोक-लाज मर्यादा भीतर रहने दूँ तो घुटन, सहन से ज़्यादा, मेरा यह व्यक्तित्व सिमटने पर आमादा। #2: चीथड़े में हिन्दुस्तान – दुष्यंत कुमार एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है। ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है। एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है। मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है। इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है। कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला की हिन्दुस्तान है। मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ, हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है। #3: तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा – दुष्यंत कुमार